Description
सूर्यकान्त त्रिपाठी “निराला” हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते हैं। वे जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा के साथ हिन्दी साहित्य में छायावाद के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने कहानियाँ, उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति विशेष रुप से कविता के कारण ही है। निराला के कथा साहित्य में जातीय चेतना के अध्ययन के पूर्व आवश्यक है कि हम हिन्दी में उपन्यास के लेखन की परम्परा का परिचय प्राप्त करें। हिन्दी उपन्यास की मूल चेतना के साथ निराला की चेतना को मिलाकर देखें कि निराला का अपनी परम्परा से क्या संबंध है। निराला की जातीय चेतना उनकी बहुआयामी चेतना की ही अभिव्यक्ति है। वैयक्तिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय तथा अन्तःराष्ट्रीय जगत में घटने वाली घटनाओं के घात-प्रतिघात से उनकी इस चेतना का विकास हुआ था। उनका जन्म 1899 एवं मृत्यु 1960 में हुई। इस दौर में राष्ट्रीय और अन्तःराष्ट्रीय जगत में बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ। इतिहास में यह दो महायुद्धों का काल खंड है। विश्व स्तर पर साम्राज्यवाद कर-बल-छल से अपना पैर पसार रहा था। दो विश्व युद्धों से उसका घिनौना मुखौटा बेनकाब हो चुका था। निराला की जातीय चेतना सामाजिक रूप में साम्राज्यवाद और सामन्तवाद विरोधी चेतना है। जिसकी अन्तः प्रकृति स्वदेशी है। स्वदेशी का स्वरूप निराला के साहित्य में राष्ट्रीय, प्रान्तिक एवं अन्तःराष्ट्रीय तीनों रूपों में दिखायी पड़ता है। इस चेतना की अभिव्यक्ति कहीं-कहीं तो मुखर है, किन्तु कहीं-कहीं फल्गु की तरह अन्तःसलिला। जिसको जानने के लिये ऊपरी सतह को थोड़ा हटाना पड़ता है। उपन्यासों में यह दोनों रूपों में प्रकट है, कहीं स्पष्ट तो कहीं प्रच्छन्न। हमने इसके पूर्व उनके कथासाहित्य का विवरण प्रस्तुत किया है। इस अध्याय में उपन्यासों में उनकी जातीय चेतना को समझने का प्रयास है। सामान्य जन से जुड़ी रचना सामान्य जनमानस के मनोभावों की अभिव्यक्ति करने में सक्षमहोती है। सामान्य जन-जीवन से रस ग्रहण करके ही सर्जना को प्राणवान बनाया जा सकता है और ऐसी ही रचना को जनवादी रचना की संज्ञा दी सकती है। ‘जनवादी कविता जनताकी जिन्दगी के बीच से उगते हुए उसकी आशाओं, आकांक्षाओं उसके स्वप्नों तथा संघर्षों को वाणी देती है।‘ अर्थात जनवादी काव्य में कवि जनसामान्य के सुख-दुख, पीड़ा यातना, वेदना, कुण्ठा, असंतोष, असहायता, निर्बलता, शोषण, विवशता, उपेक्षा तथा उसके संघर्ष का यथार्थ और सजीव चित्रण करता है। स्पष्ट है कि जनवादी कविता का आधार सामान्य जनता है। सामान्य जनता से हमारा तात्पर्य समाज के उन वर्गों से है जो सदियों से शोषित, दलित, पद-दलित, उपेक्षित और पीड़ित है जिनमें भिक्षुक, मजदूर, श्रमशील किसान, भूमिहीन, उपेक्षित नारी, विधवा आदि निम्न वर्ग की जनता आती है। वेदना एक मानसिक स्थिति है, जिसमें व्यक्ति के दुख और पीड़ा की अभिव्यक्ति उसके भावों के माध्यम से होती है। दुख मानव हृदय में तलश्पर्शी एवं द्रवणशील अनुभूति प्रदान करता है तथा वह गंभीर एवं स्थायी आत्मिक एकताउत्पन्न करने की क्षमता रखता है। करुण, भयानक आदि रसों के द्वारा सहृदयों में दुखद दशा उत्पन्न होती है। और यही दुख काव्य में वेदना कहलाता है जो प्रेक्षक को सहानुभूतिपूर्ण संवेदना प्राप्त कराता है। करुण रस का स्थायी भाव शोक दुखदायी और कटु होता है, जो सहृदयों में संवेदना उत्पन्न करता है और वेदना की अनुभूति स्वतः होने लगती है। वेदना एक विदग्ध हृदय की करुणा है, पीड़ा का चरमोत्कर्ष है और विरह की तीव्रता है।
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